शक्तिहीन ही शक्ति समर्थ की
फिर भी दुर्बल शोषित है
चूल्हे की लकड़ी के जैसे
जलना उसकी नियति है
दोष भाग्य का मानो या
साधन एक व्यवस्था का ।
नींव की ईंट दबी हुई है
चमक रहा है भवन खड़ा
मिले सत्वना उसको कैसे ,
ये कैसे सोचे उसका मन
निर्बल का बल बस उसका अपना मन
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